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सिलवटें

सिलवटें ©  mulsha nkar13. All articles, scripts, poetry, prose, reviews written here are exclusive copyrights of mulshankar13. Any article, poetry, prose, story or reviews may be reused, quoted in full or as an excerpt only with attribution to "Source: mulshankar13". अभी सुबह होने में कुछ घंटे बाकी थें नींद बस यूँ ही  खुल गयी थी ! बगल में हाथ फैलाया तो तुम नहीं थी ! बिस्तर की सिलवटें कुछ यूँ बिखरी पड़ी थीं , मानों तुम वहाँ से अभी उठी हो ; गुसल खाने की ओर देखा तो बत्ती बंद पड़ी थी रसोई से कुछ बर्तनों के खनकने की आवाज़ आ रही थी ; जाकर देखा तो कुछ भी नहीं था कोई नहीं था ,तुम नहीं, तुम्हारी परछाईं भी नहीं ! सपना था शायद मेरी  नींद यूँ ही खुल गयी थी ! बिस्तर की सिलवटों में तुम नहीं थी तुम्हारी यादें होंगी ! अगर तुम सच में उन सिलवटों में होती तो मेरे हथेली की रेखाएँ इतनी स्पष्ट ना होती ! तुम्हारे चहरे की सुर्ख़ियों से उलझ  कुछ नर्म पड़ गई होतीं ! मेरी नींद यूँ ही खुल गयी थी बिस्तर की सिलवटों में तुम नहीं थी ज़रूर तुम्हारी यादें हों