बाबूजी की गर्म रोटियाँ
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"किरण, बाबूजी ने खाना खा लिया क्या?", अमित अभी दफ़्तर से लौटा ही था की उसने किरण को आवाज़ लगाई!
हाँ! वो खा चुके, तुम्हारी राह देख रहे थे पर तुमने आने में देर कर दी", किरण ने कहा!
"किरण, बाबूजी को रोटियाँ गर्म ही परोसी थीं ना?"
"अभी वो सोए नहीं हैं! खुद पूछ कर तसल्ली कर लो", किरण ने व्यंग भरे स्वर में उत्तर दिया!
"अरे नहीं! मेरा मतलब था की तवे से तुरंत उतारकर परोसी थीं क्या... अच्छा खाना जल्दी ले आओ! कल दफ़्तर थोड़ा जल्दी जाना है"!
कुछ देर बाद अमित और किरण खाने बैठें!
"एक बात पूछूँ अमित?", किरण ने अमित को खाना परोसते हुए कहा!
"हाँ बोलो"!
"क्या मैं बाबूजी का ठीक से ध्यान नहीं रख पाती या मेरी सेवा भाव में कोई कमी रह गई है?", यह कहते कहते किरण की आँखें भर आईं!
"नहीं, ऐसा तो मैनें कभी नहीं कहा! आज ये सवाल क्यूँ ?", अमित ने पूछा!
"फिर, हर दिन दफ़्तर से आते ही एक ही सवाल की बाबूजी को गर्म रोटियाँ परोसी थी की नहीं, आख़िर क्यूँ?", किरण की निराशा क्रोध का रूप ले रही थी!
"किरण यह सवाल मेरा खुद से होता है की क्या मैंनें एक अच्छा बेटा बनने में कोई कसर तो नहीं छोड़ी"!
"मैं समझी नहीं अमित, मतलब?"
"मैं १२ साल का था जब माँ का देहांत हुआ! बाबूजी चाहते तो दूसरी शादी कर सकते थें! और वो कदाचित् चाहते भी थें! पर मैंनें मना
कर दिया! मैनें अपनी ताई से कहलवा दिया की मैं घर से दूर होस्टेल में रहकर पढ़ना पसंद करूँगा अगर बाबूजी ने दूसरी
शादी की तो! मेरे दिमाग़ में ना जाने कैसे बैठ गया था की सौतेली माँ से ज़्यादा बुरा मेरे लिए कुछ और हो ही नहीं सकता"!
"मैं बाबूजी का सबसे अच्छा दोस्त हूँ अब तक! मुझसे दूर रह कर जीने की कल्पना उन्होने कभी नहीं की! और उन्होनें मेरे ज़िद के कारण दोबारा शादी नहीं की"!
"मैं अब भी नहीं समझी! इन बातों का रोटियों के गर्म होने ना होने से क्या संबंध है?"
"संबंध है किरण...", अमित एक लंबी साँस भरता है!
"माँ की मृत्यु के बाद बाबूजी पहले से और ज़्यादा खुद को अपने काम में व्यस्त कर लिए! पटसन (जूट) उद्यम के बढ़ते
अनिश्चित भविष्य, उदासीन उत्पादन और मज़दूर असंतोष जैसे मुद्दों ने उन्हें बिल्कुल अकेले नहीं छोड़ा!
फलस्वरूप वो सुबह जल्दी जूट मील के लिए निकल जाते और रात को ठीक साढ़े नौ बजे खाने पर आते! मैं उस समय अपने कमरे
में पढ़ रहा होता था! जैसे ही वो मुझे खाने के लिए आवाज़ लगाते, मेरे पढ़ने की एकाग्रता और दुगुनी हो जाती!
मैं उन्हें पाँच मिनिट में आने का आश्वासन दे ज़ोर-ज़ोर से पढ़ने लगता! विद्या अर्जन में अपनी निष्ठा का प्रदर्शन करने का यह
अवसर यूँ ही कैसे गवाँ देता! दस मिनिट बाद जब मैं खाने की मेज़ पर पहुँचता तो बाबूजी अपना खाना ख़त्म कर चुके होते थें!
मैं उन पे चिल्ला पड़ा, "आप दस मिनिट मेरे लिए रुक नहीं सकते थें" ?
उन्होंने कहा, "मैंने आवाज़ लगाई थी! तुम नहीं आए तो मैं क्या करूँ? अब खा लो बैठ कर" !
मेरे अंदर का मूर्ख अभिमान स्वाभिमान की चादर ओढ़े मुझसे बुदबुदाता की अपनी एक मात्र संतान के लिए बाबूजी दस मिनिट रुक नहीं सकते थें? इतनी संवेदनाशून्य पिता की यदि यही इच्छा है, तो यही सही! मैं अपना खाना ख़त्म कर बिना कुछ बोले अपने कमरे में चला गया!
माँ के दहांत उपरान्त हम बाप-बेटे के जीवन का लगभग यही नित्य क्रम था जब मेरे माध्यमिक परीक्षा के ठीक चार महिने पहले
दिसंबर के ठंड की अघोषित बारिश ने इसे तोड़ा!
हमारा रात का खाना बाबूजी जूट मील के क्लब-हाउस से मँगाते थें! क्लब का बैरा गिन कर आदेशानुसार आठ रोटियाँ एक सॉफ
अख़बार में लपेट कर स्टील के टिफिन में दे जाता था! सब्जी एक अलग टिफिन में!
दस बज चुके थें और बाबूजी अब तक मील से वापस लौटे नहीं थे ! भूख से प्रेरित मेरे कदम खाने के मेज़ की ओर बढ़ चलें!
मैने सोचा की मैं रोटी और सब्ज़ी को बाहर निकाल बाबूजी की प्रतीक्षा करता हूँ! मैं रोटियाँ टिफिन से निकाल कर प्लेट पे रखने लगा
कि आशर्च्य से मेरे हाथ रुक गये! टिफिन में सबसे नीचे रखी हुई रोटियाँ भीगी हुई थीं!
बैरा ने रोटियाँ गर्म ही टिफिन में डाल दी थीं! इसलिए नॅमी से रोटियाँ भीग गयी थीं!
लेकिन फिर ये रोटियाँ मुझे कभी अपने प्लेट पर क्यूँ नहीं मिलीं? उत्तर स्पष्ट था! वो भीगी रोटियाँ बाबूजी स्वयं खा लेते थें! इसीलिए
वो खाना मेरे आने के पहले ही ख़त्म कर लेते थें!
कोई पिता यह नहीं चाहेगा की उसके बच्चों को भीगीं रोटियाँ खानी पड़ें! ना ही कोई पिता कभी अपने बच्चों से यह कहेगा कि उसने
अपने जीवन में अपने बच्चों के लिए क्या-क्या त्याग किया है!
यदि मैनें बाबूजी को दूसरी शादी के लिए मना ना किया होता तो उन्हे वो भीगी रोटियाँ नहीं खानी पड़ती! उन्हें सारी उम्र अकेले नहीं
रहना पड़ता!
इसीलिए मैं हर दिन तुम से आकर पूछता हूँ की किरण बाबूजी को रोटियाँ गर्म परोसी थीं ना?"
किरण की आँखें भर आईं और वो बोल पड़ी, " हाँ, बाबूजी को रोटियाँ गर्म परोसी थीं! तवे से उतरती हुई, एकदम गर्म!"
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"किरण, बाबूजी ने खाना खा लिया क्या?", अमित अभी दफ़्तर से लौटा ही था की उसने किरण को आवाज़ लगाई!
हाँ! वो खा चुके, तुम्हारी राह देख रहे थे पर तुमने आने में देर कर दी", किरण ने कहा!
"किरण, बाबूजी को रोटियाँ गर्म ही परोसी थीं ना?"
"अभी वो सोए नहीं हैं! खुद पूछ कर तसल्ली कर लो", किरण ने व्यंग भरे स्वर में उत्तर दिया!
"अरे नहीं! मेरा मतलब था की तवे से तुरंत उतारकर परोसी थीं क्या... अच्छा खाना जल्दी ले आओ! कल दफ़्तर थोड़ा जल्दी जाना है"!
कुछ देर बाद अमित और किरण खाने बैठें!
"एक बात पूछूँ अमित?", किरण ने अमित को खाना परोसते हुए कहा!
"हाँ बोलो"!
"क्या मैं बाबूजी का ठीक से ध्यान नहीं रख पाती या मेरी सेवा भाव में कोई कमी रह गई है?", यह कहते कहते किरण की आँखें भर आईं!
"नहीं, ऐसा तो मैनें कभी नहीं कहा! आज ये सवाल क्यूँ ?", अमित ने पूछा!
"फिर, हर दिन दफ़्तर से आते ही एक ही सवाल की बाबूजी को गर्म रोटियाँ परोसी थी की नहीं, आख़िर क्यूँ?", किरण की निराशा क्रोध का रूप ले रही थी!
"किरण यह सवाल मेरा खुद से होता है की क्या मैंनें एक अच्छा बेटा बनने में कोई कसर तो नहीं छोड़ी"!
"मैं समझी नहीं अमित, मतलब?"
"मैं १२ साल का था जब माँ का देहांत हुआ! बाबूजी चाहते तो दूसरी शादी कर सकते थें! और वो कदाचित् चाहते भी थें! पर मैंनें मना
कर दिया! मैनें अपनी ताई से कहलवा दिया की मैं घर से दूर होस्टेल में रहकर पढ़ना पसंद करूँगा अगर बाबूजी ने दूसरी
शादी की तो! मेरे दिमाग़ में ना जाने कैसे बैठ गया था की सौतेली माँ से ज़्यादा बुरा मेरे लिए कुछ और हो ही नहीं सकता"!
"मैं बाबूजी का सबसे अच्छा दोस्त हूँ अब तक! मुझसे दूर रह कर जीने की कल्पना उन्होने कभी नहीं की! और उन्होनें मेरे ज़िद के कारण दोबारा शादी नहीं की"!
"मैं अब भी नहीं समझी! इन बातों का रोटियों के गर्म होने ना होने से क्या संबंध है?"
"संबंध है किरण...", अमित एक लंबी साँस भरता है!
"माँ की मृत्यु के बाद बाबूजी पहले से और ज़्यादा खुद को अपने काम में व्यस्त कर लिए! पटसन (जूट) उद्यम के बढ़ते
अनिश्चित भविष्य, उदासीन उत्पादन और मज़दूर असंतोष जैसे मुद्दों ने उन्हें बिल्कुल अकेले नहीं छोड़ा!
फलस्वरूप वो सुबह जल्दी जूट मील के लिए निकल जाते और रात को ठीक साढ़े नौ बजे खाने पर आते! मैं उस समय अपने कमरे
में पढ़ रहा होता था! जैसे ही वो मुझे खाने के लिए आवाज़ लगाते, मेरे पढ़ने की एकाग्रता और दुगुनी हो जाती!
मैं उन्हें पाँच मिनिट में आने का आश्वासन दे ज़ोर-ज़ोर से पढ़ने लगता! विद्या अर्जन में अपनी निष्ठा का प्रदर्शन करने का यह
अवसर यूँ ही कैसे गवाँ देता! दस मिनिट बाद जब मैं खाने की मेज़ पर पहुँचता तो बाबूजी अपना खाना ख़त्म कर चुके होते थें!
मैं उन पे चिल्ला पड़ा, "आप दस मिनिट मेरे लिए रुक नहीं सकते थें" ?
उन्होंने कहा, "मैंने आवाज़ लगाई थी! तुम नहीं आए तो मैं क्या करूँ? अब खा लो बैठ कर" !
मेरे अंदर का मूर्ख अभिमान स्वाभिमान की चादर ओढ़े मुझसे बुदबुदाता की अपनी एक मात्र संतान के लिए बाबूजी दस मिनिट रुक नहीं सकते थें? इतनी संवेदनाशून्य पिता की यदि यही इच्छा है, तो यही सही! मैं अपना खाना ख़त्म कर बिना कुछ बोले अपने कमरे में चला गया!
माँ के दहांत उपरान्त हम बाप-बेटे के जीवन का लगभग यही नित्य क्रम था जब मेरे माध्यमिक परीक्षा के ठीक चार महिने पहले
दिसंबर के ठंड की अघोषित बारिश ने इसे तोड़ा!
हमारा रात का खाना बाबूजी जूट मील के क्लब-हाउस से मँगाते थें! क्लब का बैरा गिन कर आदेशानुसार आठ रोटियाँ एक सॉफ
अख़बार में लपेट कर स्टील के टिफिन में दे जाता था! सब्जी एक अलग टिफिन में!
दस बज चुके थें और बाबूजी अब तक मील से वापस लौटे नहीं थे ! भूख से प्रेरित मेरे कदम खाने के मेज़ की ओर बढ़ चलें!
मैने सोचा की मैं रोटी और सब्ज़ी को बाहर निकाल बाबूजी की प्रतीक्षा करता हूँ! मैं रोटियाँ टिफिन से निकाल कर प्लेट पे रखने लगा
कि आशर्च्य से मेरे हाथ रुक गये! टिफिन में सबसे नीचे रखी हुई रोटियाँ भीगी हुई थीं!
बैरा ने रोटियाँ गर्म ही टिफिन में डाल दी थीं! इसलिए नॅमी से रोटियाँ भीग गयी थीं!
लेकिन फिर ये रोटियाँ मुझे कभी अपने प्लेट पर क्यूँ नहीं मिलीं? उत्तर स्पष्ट था! वो भीगी रोटियाँ बाबूजी स्वयं खा लेते थें! इसीलिए
वो खाना मेरे आने के पहले ही ख़त्म कर लेते थें!
कोई पिता यह नहीं चाहेगा की उसके बच्चों को भीगीं रोटियाँ खानी पड़ें! ना ही कोई पिता कभी अपने बच्चों से यह कहेगा कि उसने
अपने जीवन में अपने बच्चों के लिए क्या-क्या त्याग किया है!
यदि मैनें बाबूजी को दूसरी शादी के लिए मना ना किया होता तो उन्हे वो भीगी रोटियाँ नहीं खानी पड़ती! उन्हें सारी उम्र अकेले नहीं
रहना पड़ता!
इसीलिए मैं हर दिन तुम से आकर पूछता हूँ की किरण बाबूजी को रोटियाँ गर्म परोसी थीं ना?"
किरण की आँखें भर आईं और वो बोल पड़ी, " हाँ, बाबूजी को रोटियाँ गर्म परोसी थीं! तवे से उतरती हुई, एकदम गर्म!"
मेरे लिए ये दोबारा था, फिर भी अल्फ़ाज़ इतने ताज़े थे की कहानी पढ़ने का आनंद बरकरार रहा. बिल्कुल सटीक शब्द, वही भाव, वही बहाव. सुरभि के अगले अंक की ये सबसे बेहतरीन रचनाओं मे से एक होगी ये. साधुवाद.
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